राम लीला देखने को किसी ज़माने में
जैसे बैठने का स्थान ‘ हथियाने’;
या फिर बारातघर में अपनी चारपाई
‘ओटने’के लिए
जैसे भागमभाग करते थे हम;
वैसी ही कोशिश देखी धुंध की अटल पार्क में;
पेड़ों , झाडों, फूल-काँटों, पत्तियों को
‘ओट’ लेने की . अपना लेने की.
बाकि बची-खुची धुंध पसर गयी
पख-डंडियों पे.
बाहर आकर देखा तो
सड़क, मकान,
खेत, आसमान,
सभी अटे पड़े थे
धुंध में!
एक घुटन.
एक ठहराव.
एक रहस्य.
मगर एक एहसास
धुंध के धुंध होने का .
फ़ैलने, छा जाने, पसरने और ‘ओट’ लेने का!
अपना लेने का !
राजबीर देसवाल दिसंबर २७ २०१०
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